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ता वृ॒धन्ता॒वनु॒ द्यून्मर्ता॑य दे॒वाव॒दभा॑। अर्ह॑न्ता चित्पु॒रो द॒धेंऽशे॑व दे॒वावर्व॑ते ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tā vṛdhantāv anu dyūn martāya devāv adabhā | arhantā cit puro dadhe ṁśeva devāv arvate ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ता। वृ॒धन्तौ॑। अनु॑। द्यून्। मर्ता॑य। दे॒वौ। अ॒दभा॑। अर्ह॑न्ता। चि॒त्। पु॒रः। द॒धे॒। अंशा॑ऽइव। दे॒वौ। अर्व॑ते ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:86» मन्त्र:5 | अष्टक:4» अध्याय:4» वर्ग:32» मन्त्र:5 | मण्डल:5» अनुवाक:6» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (अंशेव) भाग के सदृश सत्कार करने योग्य (मर्त्ताय) मनुष्य के लिये (अनु, द्यून्) प्रतिदिन (वृधन्तौ) बढ़ते वा बढ़ाते हुए (अदभा) नहीं हिंसा करनेवाले (अर्हन्ता) आदर करने योग्य (देवौ) देनेवाले को मैं (पुरः) आगे (दधे) धारण करता हूँ और जो (देवौ) प्रकाशमान दोनों (चित्) भी (अर्वते) विज्ञान के लिये वर्त्तमान हैं (ता) उन दोनों का आप लोग सत्कार करें ॥५॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य दिनरात्रि मनुष्यों के हित के लिये प्रयत्न करते हैं, वे ही सब से आदर करने योग्य हैं ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यावंशेव सत्कर्त्तव्यौ मर्त्तायाऽनु द्यून् वृधन्तावदभाऽर्हन्ता देवावहं पुरो दधे यौ देवौ चिदर्वते वर्त्तेते ता यूयं सत्कुरुत ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ता) तौ (वृधन्तौ) वर्धमानौ वर्धयन्तौ वा (अनु) (द्यून्) दिनान्यनु (मर्त्ताय) मनुष्याय (देवौ) दातारौ (अदभा) अहिंसकौ (अर्हन्ता) पूज्यौ (चित्) (पुरः) (दधे) (अंशेव) भागमिव (देवौ) देदीप्यमानौ (अर्वते) विज्ञानाय ॥५॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्या अहर्निशं मनुष्यहिताय प्रयतन्ते त एव सर्वैः पूज्या वर्त्तन्ते ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे रात्रंदिवस माणसांच्या हितासाठी प्रयत्न करतात ती सर्वत्र पूज्य ठरतात. ॥ ५ ॥